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पर्यू॒ षु प्र ध॑न्व॒ वाज॑सातये॒ परि॑ वृ॒त्राणि॑ स॒क्षणि॑: । द्वि॒षस्त॒रध्या॑ ऋण॒या न॑ ईयसे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pary ū ṣu pra dhanva vājasātaye pari vṛtrāṇi sakṣaṇiḥ | dviṣas taradhyā ṛṇayā na īyase ||

पद पाठ

परि । ऊँ॒ इति॑ । सु । प्र । ध॒न्व॒ । वाज॑ऽसातये । परि॑ । वृ॒त्राणि॑ । स॒क्षणिः॑ । द्वि॒षः । त॒रध्यै॑ । ऋ॒ण॒ऽयाः । नः॒ । ई॒य॒से॒ ॥ ९.११०.१

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:110» मन्त्र:1 | अष्टक:7» अध्याय:5» वर्ग:22» मन्त्र:1 | मण्डल:9» अनुवाक:7» मन्त्र:1


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! आप (वाजसातये) ऐश्वर्य्यप्रदान के लिये हमको (परि, प्र, धन्व) भली-भाँति प्राप्त हों (सक्षणिः) सहनशील आप (वृत्राणि) अज्ञानों को नाश करने के लिये हमें प्राप्त हों (ऊँ) और (ऋणयाः) ऋणों को दूर करनेवाले आप (द्विषः) शत्रुओं को (परि, तरध्यै) भले प्रकार नाश करने के लिये (नः) हमको (ईयसे) प्राप्त हों ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुष ईश्वरपरायण होकर उसकी आज्ञा का पालन करते हैं, वे ही परमात्मा को उपलब्ध करनेवाले कहे जाते हैं, या यों कहो कि उन्हीं को परमात्मप्राप्ति होती है और वे ही अपने ऋणों से मुक्त होते और वे ही शत्रुओं का नाश करके संसार में अभय होकर विचरते हैं। स्मरण रहे कि पूर्वस्थान को त्यागकर स्थानान्तरप्राप्तिरूप प्राप्ति परमात्मा में नहीं घट सकती ॥१॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! भवान् (वाजसातये) ऐश्वर्य्यप्रदानायास्मान् (परि, प्र,धन्व) साधु प्राप्नोति  (सक्षणिः)  सोढा  भवान् (वृत्राणि) अज्ञानानि नाशयितुं मां प्राप्नोतु (ऊँ) अथ च (ऋणयाः)  ऋणस्यापनेता भवान् (द्विषः) शत्रून् (तरध्यै)  नाशयितुं  (नः) अस्मान्  (ईयसे) प्राप्नोतु ॥१॥